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वो समय जब निजी स्वार्थ के लिए हुई थी लोकतंत्र की हत्या !


देश के आपातकाल के दौर को लेकर हर किसी की अपनी राय हो सकती है, आपातकाल क्यों लगा संभवतः इसके बारे में हर किसी को बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। कई बार सियासी फलकों में ये सवाल गूंजते हैं कि क्या इमरजेंसी इंदिरा गांधी ने व्यक्तिगत असंतोष के कारण लगाई थी ? ये सवाल गूंजने भी चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में अगर सवाल न पूछे जाएं तो ये भी एक आपातकाल का ही दौर हो सकता है।

कैसे लिखी गई आपातकाल की पटकथा ?

दरअसल आपातकाल की सारी कहानी की शुरू हुई साल 1971 में जब इंदिरा गांधी ने अपनी पैतृक सीट रायबरेली से अपने प्रतिद्वंदी राजनारायण सिंह को बड़ी आसानी से हरा दिया, और कांग्रेस देश की सत्ता में एक बार फिर काबिज़ हुई इसके चार साल बाद अचानक राजनारायण सिंह को याद आया कि वे गलत तरीके से हारे हैं और उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी। राजनारायण सिंह की दलील थी कि इंदिरा गांधी गलत तरीके से चुनाव जीती इसके अलावा उन्होंने तय बजट से ज्यादा देश का पैसा खर्च किया है और वोटर्स को पैसे के दम पर खरीदा है। 

अब क्योंकि ये आरोप था तत्कालीन प्रधानमंत्री पर इसलिए बवाल होना लाजमी था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन सभी तथ्यों की जांच की और इंदिरा गांधी को इन सभी आरोपों के लिए दोषी करार दिया गया, सज़ा के तौर पर 12 जून  1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को 6 साल तक चुनाव से निष्कासित कर दिया और इंदिरा गांधी के चुनाव लड़ने पर बैन लग गया, साथ ही राजनारायण सिंह को रायबरेली सीट से विजयी घोषित किया गया। 

लेकिन इंदिरा गांधी पर इसका रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ा और उल्टा भारत की न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। दूसरी तरफ कांग्रेस में गुटबाजी चल रही थी तो कांग्रेस ने भी ये बयान जारी किया कि इंदिरा गांधी का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी के लिए अपरिहार्य है। दूसरी तरफ गुजरात में कांग्रेस को इसी दिन करारी हार का सामना करना पड़ा।

चोट दोतरफा थी इसलिए इंदिरा गांधी का गुस्से में आना लाज़मी था, इंदिरा जी को आभास हुआ कि अब सत्ता में उनके दिन बस गिनती के बचे हैं क्योंकि पहले अपनी सीट गंवाना फिर न्याय व्यवस्था पर सवाल और फिर गुजरात में हार। इसलिए इंदिरा जी के निर्देश पर देश के तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने संविधान की धारा 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा की और इसी दिन आकाशवाणी ने अपने एक रेडियो बुलेटिन में कहा "अनियंत्रित और आंतरिक स्थितियों के कारण सरकार ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी है" 

इंदिरा का अभिभाषण-

इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी पर अपने अभिभाषण में कहा "जब से मैने आम आदमी और महिलाओं के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए तब से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी जो साजिश सफल हो रही है" 

आपातकाल का असर-

पूरे देश में आपातकाल घोषित होने के बाद नागरिकों के सारे अधिकार छिन गए, सरकार के खिलाफ किसी भी प्रदर्शन, यहां तक कि छोटे-मोटे भाषणों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया, मीडिया की स्वतंत्रता छिन गई जिसका विरोध देश के सभी अखबारों ने अखबार का संपादकीय पृष्ठ ब्लैंक छोड़कर किया। 

सरकार ने मीसा (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) के तहत सभी विरोधी और विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार करके नजरबंद करवा दिया। 

इस दौरान बिहार में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन भी चल रहा था, उन्होंने आंदोलन की सुरक्षा में तैनात पुलिस बल से आग्रह किया कि सरकार के इस काले कानून का पालन न करके उनके साथ आंदोलन में शामिल हों लेकिन जेपी नारायण को गिरफ्तार किया गया, मीसा के तहत उन्हें अपनी गिरफ्तारी के लिए न तो कोर्ट में पेश किया गया और न ही जमानत मिली, क्योंकि वो अधिकार ही खत्म कर दिया गया था।

इसी दौरान देश के दिग्गज नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी , लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं को भी जेल में डाल दिया गया जो उस वक़्त इंदिरा गांधी द्वारा निर्वाचित किए गए कार्यकारिणी सदस्य थे। 

देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री-

अब अगर आप जनता के वोट से जीतते हैं और फिर जनता के ही अधिकारों को खा जाते हैं तो जनता अगले चुनाव में आपका समर्थन देगी? जी नहीं। और ऐसा ही इंदिरा जी के साथ हुआ, जनता की नज़रों में इंदिरा गांधी एक बागी प्रधानमंत्री बनकर रह गई। ऊपर से आपातकाल के 2 साल बाद ही उन्होंने लोकसभा भंग करके 1977 में ही चुनाव करवाने की सिफारिश कर दी जो उनके लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ। 
1977 के चुनाव में आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार कोई गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री देश को मिला और वो प्रधानमंत्री थे श्री मोरारजी देसाई। 

इस चुनाव में कांग्रेस को बहुत बड़ी हार का सामना करना पड़ा, देश की संसद में कांग्रेस के 350 सांसदों की संख्या घटकर मात्र 153 रह गई, खुद इंदिरा गांधी अपनी पैतृक सीट रायबरेली से हार गईं। 
कांग्रेस को उत्तर प्रदेश बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से एक भी सीट नहीं मिल पाई, यहां से देश में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का धीरे-धीरे पतन शुरू हुआ और स्थिति यह आ गई कि 2019 के आम चुनाव में पूरे उत्तरप्रदेश में कांग्रेस महज़ एक सीट पर सिमट गई।

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